एक श्रद्धांजलि : जिन्होंने मुझे जन्म दिया

एक श्रद्धांजलि : जिन्होंने मुझे जन्म दिया
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सच्ची मित्रता - पुरानी डायरी का एक पन्ना


ह मधुर अहसास, जो दो दिलों के बीच अपनत्व की भावना जगाये, उसे 'दोस्ती' कहते हैं. दोस्ती किसी बंधन में नहीं बँधी होती. दोस्ती वर्गों, समाज, जाति-धर्म, गोरा-काला जैसे वर्ण-भेद और स्त्री-पुरुष के भेद-भाव भी नहीं करती. यह किसी भी माहौल में किसी से भी की जा सकती है. दोस्ती ही वह आधार-स्तम्भ है, जिसके बल पर हमारा समाज ज़िन्दा है. दरअसल, दिखावे, तनाव और दबाव से मुक्त बेशर्त जज्बे का नाम है - दोस्ती. अगर विधाता ने यह जज्बा न बनाया होता, तो शायद ही यह मुमकिन हो पाता कि आज हम दुनिया के प्रत्येक देशों को एक सूत्र में देख पाते.
  स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटी हो, ऑफिस हो या आस-पड़ोस, बचपन से ही रिज़र्व स्वभाव का होने के कारण मुझे जानने वालों की अपेक्षा, मेरे मित्रों की संख्या काफी कम रही है. ऐसा नहीं है कि, मैं दोस्त बनाने में यकीन नहीं करता. बात बस इतनी है कि, मेरे नजरिये में जहाँ दिल से दिल का रिश्ता न जुड़े, वहाँ भावना नहीं केवल और केवल स्वार्थ अपना डेरा जमाये बैठे रहते हैं. और जहां स्वार्थ हो, वहाँ दोस्ती भला कैसे कायम रह सकती है? यह तो अपने आपको धोखा देना हुआ. खुद को इस वहम में रखना हुआ कि मेरे मित्रों की टोली सबसे बड़ी है. मैंने सबसे अधिक मित्र एकत्रित कर रखे हैं. कोई सौ से भी अधिक साथी इकठ्ठा करके क्या करेगा,अगर वक्त पड़ने पर काम न आये ? दोस्त वह एक ही भला है, जो मुसीबत के समय दोस्ती का फ़र्ज़ अदा करने से पीछे नहीं हटता. पर, अक्सर हमारी आखों पर पड़े पर्दे हमें उस सच्चे दोस्त की पहचान नहीं करने देते. हम ढूँढते रहते हैं एक ऐसी शख्सियत, जो नाम, काम, शोहरत में ऊंचा हो, जिससे दोस्ती करके समाज में हमारा रुतबा बढ़ सके. हम यह समझ नहीं पाते, कि ऐसी दोस्ती कभी-कभी तकलीफ भी देती है.
  बात उन दिनों की है, जब मैं 12th standard में था. मेरे अलावा रत्नेश, शैलेश और अजीत, ये तीन ऐसे नाम थे, जिन्हें एक ग्रुप का समझा जाता था. टीचर्स, स्टुडेंट्स सभी को पता होता था, ये चारों जहाँ भी मिलेंगे, साथ ही मिलेंगे.हमारे क्लास-टीचर मि.टी.एन.मिश्रा ने तो हमें 'चार-चांडाल' की उपाधि ही दे डाली थी. प्यार से दी गयी उनकी ये उपाधि, हमें इतनी भा चुकी थी, कि हमने फिर कभी चार से पाँच होने का सोचा ही नहीं. हम चांडाल कहे जाने से ही खुश थे, पांडव कहे जाना कभी गवारा ही नहीं किया.
  उन्हीं दिनों कॉलेज में एक Rowdy gang का आतंक हुआ करता था. यह पिछले वर्ष की परीक्षा में असफल रहे उन छात्रों का ग्रुप था, जिनमे से कोई भी हमारे बैच के साथ खुद को adjust नहीं कर पा रहा था. वजह थी - शर्मिंदगी. क्योंकि, हममे से अधिकतर छात्र उन सभी को 'मुलायम मार्का स्टुडेंट्स' कहकर बुलाया करते थे. यानी, जो बगैर नक़ल किये पास ही न हो सके. जबकि,वह दौर था 'भा.ज.पा.सरकार' के शासनकाल का, जिसमे नक़ल करते पकडे जाने वाले विद्यार्थियों को सीधे जेल की सज़ा मिलती थी. हम जानते थे कि, वे इस साल भी असफल ही होंगे. लिहाज़ा, हमारे व्यंग-बाणों ने उन्हें और भी ज़लील कर रखा था.
  ऐसे में, मैं उनसब की निगाह में उसवक्त चढ़ा, जब Pre-board exam में मेरा Top rank आया. वे मुझसे पास होने का Trick जानना चाहते थे. "पास होने का बस एक ही Trick है - पढाई. जो जितना अधिक मन लगाकर पढ़ेगा, उसके उतने अच्छे अंक आयेंगे." मुझसे यह जवाब सुन उन्होंने उसपल सिर्फ घूरकर देखा. मैं नहीं समझ सका कि, उनके मन में कोई योजना चल रही है.
  अगले दिन, Prayer-meeting के बाद मैं जब क्लास-रूम में पहुँचा तो मेरा बैग गायब किया जा चुका था. मुझे इस बात का इतना दुःख नहीं था कि, मेरा बैग चोरी हो गया, मैं विचलित था बस इस बात से कि, बैग के साथ-साथ उसमे रखे कुछ विषयों के नोट्स भी खो चुके थे. तमाम complaints के बावजूद, कॉलेज की ओर से Rowdy gang के खिलाफ कोई ख़ास एक्शन नहीं लिया गया. नोट्स की खोज कर पाने के मेरे सारे प्रयास असफल रहे.
  उन नोट्स के बिना Board-exam में सफल हो पाना मुझे असम्भव सा लगने लगा. और अब तो समय भी नहीं था कि, मैं दुबारा उन नोट्स को तैयार कर सकूँ. ऐसे में, मैंने अपने जिगरी-दोस्तों रत्नेश, शैलेश और अजीत तीनो से मदद माँगी. मगर,तीनो ने ही अपने-अपने तरीकों से पल्ले झाड़ लिए. ऐसे-ऐसे बहाने बनाये, जिनका मेरे पास कोई काट ही नहीं था. यह पहली दफ़ा था, जब उन सभी को जिगरी दोस्त कहना मुझे खल रहा था.
  मैं निराश हो चुका था और यह उम्मीद कर बैठा था कि, Board-exam में मेरे उतने अच्छे अंक अब नहीं आयेंगे, जितने मैंने सोच रखे थे. पर, जिसके साथ भगवान हों,शैतान उसका क्या बिगाड़ सकता है ? मेरी बिगड़ती हुयी किस्मत सम्भल गयी. उसने मुझे दिया एक ऐसा दोस्त, जो सचमुच दोस्ती के काबिल था. यह अलग बात है कि, मैंने कभी उसकी ओर निगाह नहीं डाली थी, यह सोचकर कि कहीं कोई मेरा मज़ाक न उड़ाये कि, मैंने एक सब्जी बेचने वाले के बेटे से दोस्ती कर रखी है. पर,उसने जिसतरह मेरी मदद की, उसके बाद मेरी नज़र में उसका दर्ज़ा सबसे ऊपर हो चुका था. आज, मुझे यह स्वीकार करने में ज़रा भी संकोच नहीं है कि, Intermediate exam में मैंने जो भी अंक हासिल किये, उनमे मेरे उस गरीब साथी धर्मेश का का बहुत बड़ा योगदान है. जिसकी दोस्ती को मैंने हमेशा बेकार समझा. एकदिन वही दोस्त मेरे काम आया. बिना किसी स्वार्थ के मेरी मदद करके, दोस्ती क्या होती है, इसका वास्तविक अर्थ समझाया.
  ऐसे सच्चे दोस्त न ही Social Networking Sites पर मिल पाते हैं, न ही club या किसी Ocassional-spot पर. ऐसा दोस्त तो बस वहाँ मिल सकता है, जहाँ भावनाओं का संगम हो. और आज का दौर यह कहता है कि, भावनायें वहीं रह गयी हैं, जहाँ ऊँची इमारत न सही, पर ऊँचे संस्कार अपनी मौजूदगी दर्ज करायें.
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